Shri Surya Chalisa ( श्री सूर्य चालीसा )
In Hindu mythology, Surya represents the Sun god. Surya is depicted as a red man with three eyes and four arms, riding in a chariot drawn by seven mares. Surya holds water lilies with two of his hands. With his third hand he encourages his worshipers whom he blesses with his fourth hand. In India, Surya is believed to be a benevolent deity capable of healing sick people. Even today, people place the symbol of the Sun over shops because they think it would bring good fortune. Surya is considered as the only visible form of God that can be seen every day. God Surya is regarded as an aspect of Shiva and Vishnu by Shaivites and Vaishnavas respectively. Surya is also known as Surya Narayana. Surya, the Sun God is also acknowledged as one of the eight forms of Lord Shiva (Astamurti). Surya is the lord of excellence and wisdom. One should chant Shri Surya Chalisa daily for blessings of Surya bhagwan and offer him water in copper pot for faster results.
सूर्य संपूर्ण चराचर जगत की आत्मा है तथा संपूर्ण सृष्टि की गति का आधारतत्व है। सूर्य संपूर्ण जगत को प्रकाश,जीवन शक्ति,ऊष्मा तथा उर्जा प्रदान करता है। वेदों में सूर्य की महत्ता का वर्णन करते हुए सूर्य को आयु, आरोग्यता,आत्मबल,मान-सम्मान-यश-कीर्ति-पद-प्रतिष्ठा, ज्योति,ज्ञान तथा सत्ता प्रदायक तथा जगत का मार्गदर्शक,प्रकृति का गति प्रदाता व प्रकृति संतुलन का नियंत्रक एवं जीवन शक्ति प्रदान करने वाला बताया गया है। सूर्य का एक अतिविशेष गुण यह है कि सूर्य रोगाणु नाशक तथा कीटाणु नाशक है।विभिन्न शारीरिक समस्याओं जैसे हड्डी रोग,नेत्र रोग,चर्म रोग तथा त्वचा संबंधी अन्य विकार,ह्रदय रोग आदि की स्थिति में भी सूर्योपासना लाभदायक होती है। ज्योतिष शास्त्र में सूर्य को ग्रहाधिराज ( समस्त ग्रहों का राजा ) की उपाधि प्रदान की गयी है जिसका कारण है सूर्य का ब्रह्मांड तथा सौरमंडल का केन्द्र होना।सूर्य भगवान के आशीर्वाद के लिए नित्य करें श्री सूर्य चालीसा का पाठ व् सूर्य भगवान को तांबे के लोटे से जल अर्पण करें
श्री सूर्य चालीसा
दोहा -कनक बदन कुण्डल मकर, मुक्ता माला अड्ग ।
पद्मासन स्थित ध्याइये, शंख चक्र के सड्ग ॥
चौपाई -
जय सविता जय जयति दिवाकर । सहस्त्रांशु सप्ताश्व तिमिरहर ॥
भानु पतंग मरीची भास्कर सविता । हंस सुनूर विभाकर ॥
विवस्वान आदित्य विकर्तन । मार्तण्ड हरिरूप विरोचन ॥
अम्बरमणि खग रवि कहलाते । वेद हिरण्यगर्भ कह गाते ॥
सहस्त्रांशुप्रद्योतन कहि कहि । मुनिगन होत प्रसन्न मोदलहि ॥
अरुण सदृश सारथी मनोहर । हाँकत हय साता चढ़ि रथ पर ॥
मंडल की महिमा अति न्यारी । तेज रूप केरी बलिहारी ॥
उच्चैःश्रवा सदृश हय जोते । देखि पुरंदर लज्जित होते ॥
मित्र मरीचि भानु । अरुण भास्कर सविता ॥
सूर्य अर्क खग । कलिकर पूषा रवि ॥
आदित्य नाम लै । हिरण्यगर्भाय नमः कहिकै ॥
द्वादस नाम प्रेम सों गावैं । मस्तक बारह बार नवावै ॥
चार पदारथ सो जन पावै । दुःख दारिद्र अध पुञ्ज नसावै ॥
नमस्कार को चमत्कार यह । विधि हरिहर कौ कृपासार यह ॥
सेवै भानु तुमहिं मन लाई । अष्टसिद्धि नवनिधि तेहिं पाई ॥
बारह नाम उच्चारन करते । सहस जनम के पातक टरते ॥
उपाख्यान जो करते तवजन । रिपु सों जमलहते सोतेहि छन ॥
छन सुत जुत परिवार बढतु है । प्रबलमोह को फँद कटतु है ॥
अर्क शीश को रक्षा करते । रवि ललाट पर नित्य बिहरते ॥
सूर्य नेत्र पर नित्य विराजत । कर्ण देस पर दिनकर छाजत ॥
भानु नासिका वास रहु नित । भास्कर करत सदा मुख कौ हित ॥
ओंठ रहैं पर्जन्य हमारे । रसना बीच तीक्ष्ण बस प्यारे ॥
कंठ सुवर्ण रेत की शोभा । तिग्मतेजसः कांधे लोभा ॥
पूषां बाहू मित्र पीठहिं पर । त्वष्टा वरुण रहम सुउष्णाकर ॥
युगल हाथ पर रक्षा कारन । भानुमान उरसर्म सुउदरचन ॥
बसत नाभि आदित्य मनोहर । कटि मंह हँस रहत मन मुदभर ॥
जंघा गोपति सविता बासा । गुप्त दिवाकर करत हुलासा ॥
विवस्वान पद की रखवारी । बाहर बसते नित तम हारी ॥
सहस्त्रांशु सर्वांग सम्हारै । रक्षा कवच विचित्र विचारे ॥
अस जोजन अपने मन माहीं । भय जग बीज करहुँ तेहि नाहीं ॥
दरिद्र कुष्ट तेहिं कबहुँ न व्यापै । जोजन याको मनमहं जापै ॥
अंधकार जग का जो हरता । नव प्रकाश से आनन्द भरता ॥
ग्रह गन ग्रिस न मिटावत जाही । कोटि बार मैं प्रनवौं ताही ॥
मन्द सदृश सुतजग में जाके । धर्मराज सम अद्भुत बाँके ॥
धन्य धन्य तुम दिनमनि देवा । किया करत सुरमुनि नर सेवा ॥
भक्ति भावतुत पूर्ण नियमसों । दूर हटतसो भवके भ्रमसों ॥
परम माघ महं सूर्य फाल्गुन । मध वेदांगनाम रवि गावै ॥
भानु उदय वैसाख गिनावै । ज्येष्ट इन्द्र आषाढ़ रवि गावै ॥
यह भादों आश्विन हिमरेता । कातिक होत दिवाकर नेता ॥
अगहन भिन्न विष्णु हैं पूसहिं । पुरुष नाम रवि हैं मलमासहिं ॥
दोहा -
भानु चालीसा प्रेम युत, गावहि जे नर नित्य ।
सुख साम्पत्ति लहै विविध, होंहि सदा कृतकृत्य ॥